हरे पत्ते पर,
ओस की बूंदों नें
ज्योंहीं की चहलकदमी ...
ओस की बूंदों नें
ज्योंहीं की चहलकदमी ...
गीलेपन के साथ
पत्ते ने कहा ,
"क्यों आए हो
टूटते तारे बनकर ...
जब सूरज की नारंगी किरणें
ले जाएंगी तुम्हें ...
और रह जाएगी
पत्ते ने कहा ,
"क्यों आए हो
टूटते तारे बनकर ...
जब सूरज की नारंगी किरणें
ले जाएंगी तुम्हें ...
और रह जाएगी
बस ...
इक ओस की आस"
इक ओस की आस"
ओस की नन्हीं-सी
इक बूंद ने कहा,
इक बूंद ने कहा,
"एक यही आस है
जो जिन्दा रखती है मुझे
हर रोज ...
मृगतृष्णा नहीं,
जो जिन्दा रखती है मुझे
हर रोज ...
मृगतृष्णा नहीं,
सत्य हूँ मैं ...
इक बूँद में सही,
पल भर सही ... "
No comments:
Post a Comment